संविधान ने एक लोकतांत्रिक राज्य की व्यवस्था की है। उसे आम चुनाव लाकर करते है। लोकतंत्र के विकास में चुनाव की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। चुनाव से राज्य का संचालन जनप्रतिनिधियों के हाथ में आ जाता है। इस चुनाव क्रिया से ही राजनीति को आकार-प्रकार मिलता है। राजनीति दल प्रणाली से संचालित होती है।
देश मे चुनाव की निरंतरता से समाज की लोकतांत्रिक ग्रहणशीलता को विश्वव्यापी मान्यता और प्रतिष्ठा दिलाई है। उन आंशकाओं को दूर कर दिया है जो पश्चिमी राजनीतिक विद्वानों ने शुरू मे प्रकट की थी। इन चुनावों से नागरिक के राजनीतिकीकरण की प्रक्रिया को अबाध मति मिली है।
चुनावों से हमारे जनजीवन में एक खुलापन आया है। मतदान में रूचि और नागरिकी सहभाभिता बढ़ी है। निर्वाचन आयोग ने आपने लिए एक सम्मान का स्थान अर्जित किया है। फिर भी राजनीति ने विसंगतियाँ है जो चुनाव सुधार की माँग करती है। चुनाव सुधार निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। पिछले एक दशक में चुनाव सुधार के कई कदम उठाए गए है सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग के अलावा नागरिक प्रयासों ले यह संभव हो सका है।
इन घुनाव सुधारों से राजनीति को पूरी तरह निर्मल नही किया जा सका है। जरुरी है कि चुनाव सुधार पर निरंतर, ‘विचार-मंथन’ हो । प्रज्ञा संस्थान का यह अध्ययन केंद्र इस दिया में प्रयास करता रहेगा।