भारतीय मनीषियों ने व्यक्ति, समाज और सृष्टि में सामंजस्य देखा है। उसी आधाद पर हमारी सभ्यता और संस्कृति का विकास हुआ। भारत की यह दृष्टि उन पश्चिमी समाजों से मिन्न है जो व्यक्ति और समाज, मनुष्य और प्रकृति में अनिवार्यतः टकराव की स्थिति ही देखते हैं। हजारों सालों में भारतीय सभ्यता पल्लवित और पोषित होती रही है। प्रकृति की ही भांति इसमें समय और परिस्थितियों के अनुकूल बनने और नवीनीकरण की स्वाभाविक शक्ल विकसित हुई है। इसीलिए अनेक बाधाओं और प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद इसकी श्रृंखला टूटी नहीं।
इस राष्ट्र को अनेक प्रकार के आरोहों-अवरोहों का सामना करना पड़ा| इनके दबाव और तनाव में हमारी सम्यता के ढांचे में भी कमजोरी के क्षण आए। अट्ठारहवीं शताब्दी में यूरोपीय॑ साम्रज्य के भारत में कंदेम रखते समय भी भारतीय राष्ट्र ऐसी ही दुर्बलता और अनिश्चय का शिकार था। ब्रिटिश शासन ने जानबूझकर भारत की आंतरिक व्यवस्या को क्रूरता से तहस-नहस करके रही सही कसर पूरी कर दी। उत्पादन तंत्र, ग्रामीण लोकशासन, कला-कौशल, उद्योग, ज्ञान-विज्ञान की सभी संस्थाओं को नष्ट किया गया। इससे हमारे सामने अश्मिता का प्रश्न खड़ा हों गया। पहचान के इस संकट में हमारे कल्याणकारी ढांचे, पर्व-त्यौहार, संस्कार और परंपराएँ संभी विवाद के विषय बन गए हैं।
आजादी मिलने के इतने वर्ष बाद भी अगर हमारे सामने पहचान का संकट है तो स्पष्ट है कि अपनी सभ्यता के पुनर्मूल्यांकन की विशट चुनौती हमारे सामने खड़ी हो गई है। इस संदर्भ में अध्ययन, विश्लेषण और आत्ममंथन के प्रयास, जितने स्तरों पर होने चाहिए, नहीं हो रहे हैं। इस ठहराव को तोड़ना आवश्यक है।
प्रज्ञा संस्थान राष्ट्रीय प्रश्नों पह विचार मंचन को गति देते हुए पुनर्मूल्यांकन का वातावरण पैदा करने का प्रयास करेगा। सभ्यता और संस्कृति नदी की तरह प्रवाहमय होती हैं, इसलिए बदलते हुए परिवेश में हर महत्वपूर्ण सवाल और आधारभूत समस्या की निरंतर प्रासंगिकता जांचने-परखने की भी आवश्यकता होती है। इसलिए हमारी परंपरा और जीवन पद्धति की उन झंस्थाओं की पहचान आवश्यक है जो नंवनिर्माण में सकतात्मक भूमिका निभा सकती है, जो बिना वर्गभेद के ज्ञान-विज्ञान, साहित्य-दर्शन और कलाकौशल का अबाध विस्तार करने में सहायक हों, और जो भारत को समाज, व्यक्ति और प्रकृति के बारे में समग्र और सृजनात्मक दृष्टि अपनाने की प्रेरणा दें। आजादी के बाद इतना समय गुजरने पर भी राष्ट्र किंकर्तव्यविमूंढ़ सा है कि उसे अपनी सभ्यता की नए सिरे से व्याख्या करने की चुनौती का सामना करना पड़ रहा है।
सभ्यता का संबंध राष्ट्र और विश्व दृष्टि से होता है। हम समस्याओं को, विश्व का, प्रकृति, मनुष्य और प्राणी मात्र को जिस दृष्टिकोण से देखते हैं, वही हमारी सभ्यता की विशिष्टता है। स्पष्ट है दमन और शोषण पर आधारित कोई भी आर्थिक, प्रौद्योगिक, राजनैतिक या सामाजिक व्यवस्था हमारी मान्याताओं और हमारे मूल्यबोंध में स्वीकार्य नहीं हो सकती। लेकिन यह केवल आस्था का ही नहीं कर्म का भी प्रश्न है, इसे व्यावहारिक घरातल पर कार्यान्वित करने की आवश्यकता है। यह आवश्यक है कि राष्ट्र के सामने खड़ी सभी समस्याओं, सभी सरोकारों और नीतियों को अपनी ही सभ्यता के आलोक में अपनी ही सांस्कृतिक परंपराओं के दायरे में देखें, परखें और उन्हें सही दिशा देने का प्रयास करें। इसीलिए एक ऐसे केंद्र की आवश्यकता थी जो विचार-मंयन का काम करे। जो देश की बहुआयामी प्रतिभाओं को मंच प्रदान करे और सांस्कृतिक एवं वैचारिक ठहराव को गति दे। आय समसामयिक समस्याओं और प्रश्नों पर भारतीय सभ्यता के दायरे में विचार-मनन, संवाद, अध्ययन, सर्वेक्षण और अनुसंधान के उद्देश्य से ही ‘प्रज्ञा संत्थान’ की स्थापना की गयी है।