समर नहीं, समरसता
भारत की जीवन-व्यवस्था और चिंतन-प्रक्रिया में एक अद्भुत सामर्थ्य रही है। हजारों वर्ष प्राचीन हमारा देश आर्थिक, सामाजिक, राजकीय जैसे अनेक आघातप्रत्याघातों में से मार्ग खोजकर मानव जाति के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करता रहा है। भारत के अंतर में प्रवाहित ऊर्जा का सशक्त प्रवाह हर प्रकार के संकटों को हरता रहा है। भारत की आध्यात्मिक, सांस्कृतिक विकास यात्रा की विरासत है यह अंतरऊर्जा। भारत में जब-जब भी इस अंतरऊर्जा से अलग होकर प्रश्नों के निराकरण के प्रयास हुए हैं, तब-तब निष्फलता ही मिली है या प्रतिक्रिया पैदा हुई है।
भारत के स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास इस बात का साक्षी है। १८५७ में स्वतंत्रता संग्राम का प्रतीक कमल और रोटी हो या १९वीं सदी का भक्ति युग, लोकमान्य तिलक का गणेशोत्सव हो या गांधीजी का रामराज्य का संदेश-ये सब भारत की अंतरऊर्जा के प्रकट रूप थे। परिणामस्वरूप ये जन-चेतना जाग्रत् करनेवाले प्रबल माध्यम बन गए थे।
विश्व की महाशक्तियाँ तो अपने स्वयं के भार से टूट रही हैं या छिन्न-भिन्न हो रही हैं। केवल आर्थिक और प्रौद्योगिकी के आधार पर मानव के सुख के मनोमंथन से विकसित विचारधाराओं ने मानव को सुविधाओं का दास बनाने के अलावा विशेष कुछ भी नहीं दिया है। ऐसे समय में भारत को एक बार फिर से विश्व-कल्याण के मार्ग को प्रशस्त करने का उत्तरदायित्व निभाने की अनिवार्यता पैदा हो गई है। ऐसा कोई भी उत्तरदायित्व निभाने से पहले भारत को अपनी अंतरऊर्जा एक बार फिर से जाग्रत् करनी पडेगी। भारत को स्वयं एक सामर्थ्यवान् राष्ट्र के रूप में खड़ा होना ही है। जातिवाद, संपदायवाद, भाषावाद, प्रांतवाद जैसी अनेक उलझनों में उलझा हुआ यहाँ का सामाजिक जीवन जब तक एकरस-समरस नहीं होगा, तब तक भारत विश्व का तो क्या, अपना कल्याण भी नहीं कर सकता है। ऐसा कोई भी उत्तरदायित्व निभाने से पूर्व भारत को अपनी अंतरऊर्जा एक बार पुन: जाग्रत् करनी ही पड़ेगी। भारत को एक सामर्थ्यवान् राष्ट्र के रूप में खड़ा होना ही पड़ेगा।
विश्व के अलग-अलग समाजों ने अपने प्रश्नों के निराकरण के लिए अनेक मार्ग अपनाए हैं; परंतु इनमें मुख्य रूप से अधिकारों की लड़ाई, वर्ग-संघर्ष या क्रांति के भ्रमजाल के आसपास ही घूमता रहा है। रूस में समानता के नाम पर हुई सामाजिक क्रांति हो या बंधुत्व के नाम पर, स्वतंत्रता के नाम पर हुई फ्रांस की क्रांति हो अथवा चीन में माओ की क्रांति की बात हो-लक्ष्य की पूर्ति से पूर्व ही ये सब मार्ग स्वयं ही अंतरसंघर्ष में उलझ गए। क्रांति, प्रतिक्रांति या सांस्कृतिक क्रांति के मनोहर, लुभानेवाले नामों के नीचे भ्रमजाल में जीता हुआ यह समाज शनैः-शनैः इनके चंगुल से बाहर निकलने के लिए संघर्ष कर रहा है।
विकृत सामाजिक व्यवस्था से मुक्ति
इक्कीसवीं सदी की देहरी पर खड़े भारत को एकरस, समरस और सशक्त राष्ट्र के रूप में खड़ा होना है तो समाज में घर कर गई समस्त विकृत व्यवस्थाओं, परंपराओं और मान्यताओं से मुक्त होना ही पड़ेगा। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हमारे पास कौन सा मार्ग अभीष्ट है? भारत में इसके लिए प्रयत्न नहीं हुए हों, ऐसा भी नहीं है। अंतरऊर्जा से दूर जाकर किए गए प्रयत्नों के परिणाम के बदले प्रश्नों को ही जन्म दिया है। हमारे प्रश्नों के निराकरण के लिए समाज-सुधारकों की एक अखंड श्रृंखला रही है। यद्यपि इसमें भी कितनों ने खंडनात्मक मार्ग अपनाया! समाज को कोसते रहना, हमारा समाज बेकार और निकम्मा है, तोड़-फोड़कर फेंक दो-ऐसे विचारों के साथ अल्प समय में प्रसिद्धि भी प्राप्त कर ली, परंतु सिद्धि नहीं मिली। कहीं मात्र राजकीय आर्थिक अधिकारों तक की जागृति हितवादी दलों को पकड़ खड़ी होने लगी, जिसने समाज-हित की बात को मात्र व्यक्तिगत सिद्धियों का साधन बनाकर वर्तमान में एक नया प्रवाह शुरू किया है। जातिगत घृणा का वातावरण पैदा कर राजकीय आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए जातियों में भेद-विभेद उत्पन्न किया है। अनुभव ने हमें बताया है कि ऐसे सभी प्रयत्न हमारी अंतरऊर्जा के अनुकूल नहीं होने के कारण इन प्रयत्नों से कोई भी आंतरिक शक्ति प्राप्त नहीं हो सकी। दूसरी ओर, समाज की विकृतियों को दूर करने के लिए समाज प्रबोधन को, समाज में एकत्व की अनुभूति को टिकाकर रखने की धीमी परंतु दृढ़ प्रक्रिया चलती रही है और उसमें कुछ आशा की किरणें दिखाई दे रही हैं।
समरस समाज की प्रामाणिक इच्छा होते हुए भी किसी के द्वारा अपनाए हुए मार्ग ने समाज को ही समरभूमि बना दिया। इतिहास साक्षी है कि नकारात्मक अभिगम प्रसिद्धि दिला सकती है, सिद्धि कदापि नहीं।
हमारी सामाजिक समरसता के लिए कौन सा मार्ग उपकारक है? बीसवीं सदी में सामाजिक समरसता के लिए किए गए सब प्रयत्नों की परीक्षा करें तो स्पष्ट हो जाता है कि १९वीं सदी के उत्तरार्ध में स्वामी विवेकानंद के द्वारा निर्देशित हुआ मार्ग आज भी उतना ही उपकारक है। विवेकानंद के विचार भारत की अंतरऊर्जा को प्रभावित करनेवाले हैं।‘
जाति व्यवस्था के प्रति व्यथा
स्वामी विवेकानंद ने ३ जनवरी, १८९५ को न्यायमूर्ति सर सुब्रह्मण्यम को एक पत्र में लिखा था-“समाज में आमूल-चूल परिवर्तन करने की आवश्यकता है। सुधारकों की खंडनात्मक योजनाएँ निष्फल गई हैं। मेरी योजना के अनुसार भूतकाल में हमने जो कुछ भी किया, वह खराब नहीं है। हमारा समाज खराब नहीं, अपितु अच्छा है। मुझे उसे और अच्छा बनाना है। असत्य में से सत्य नहीं, खराब में से ही अच्छे में नहीं, बल्कि सत्य में से परम सत्य में, अच्छे में से श्रेष्ठ में ले जाना है।” इसी पत्र में विवेकानंद ने जाति व्यवस्था के प्रति दुःख व्यक्त करते हुए कहा है, “आधुनिक वर्ण तो सही जाति नहीं है। यह तो उसकी प्रगति का अवरोधक है। वास्तव में उसने तो जाति, वर्ण और विशिष्टता के स्वतंत्र कार्य को अटका दिया है।”
विवेकानंद का ऐसा दृढ़ मत था कि भारत में उसके अपने प्रश्नों को हल करने की अविरत परंपरा रही है। पहले कुछ भी हुआ नहीं था और अब ही हो रहा है-पहले दलितों, पिछड़े हुए लोगों को दु:खी व पीड़ित रखने में ही सब मशगूल थे और किसी ने कुछ किया ही नहीं, ऐसा भ्रम जानबूझकर फैलाया हुआ झूठ है।
विवेकानंदजी कहते हैं- “वाह ! भारत में सुधारकों की कब कमी रही है? आप भारत का इतिहास पढ़ते हो। रामानुज कौन थे? शंकराचार्य कौन थे? नानक कौन थे? चैतन्य कौन थे? कबीर कौन थे? दादू कौन थे? ये सब महान् उपदेशक आकाशगंगा की प्रथम कक्षा के तारों की हारमाला जैसे थे। क्या रामानुज के मन में पिछड़े वर्गों के लिए लगाव नहीं था? क्या उन्होंने जीवन भर शूद्रों को अपने संप्रदाय में लेने का प्रयास नहीं किया था?”
समाज में घर कर गई विकृतियों को, निहित स्वार्थ को पोषते तत्त्वों ने धर्म के नाम पर बढ़ावा दिया है। परिणाम धर्मभीरु समाज उसमें से बाहर नहीं निकल पाता है और दूसरा वर्ग विकृतियों के ऊपर आघात करने के बदले धर्म के ऊपर ही आघात करने का सस्ता मार्ग अपनाकर अपने हितों के जाल को बुनने में डूबा हुआ है। विवेकानंदजी ने इस बात को पहचान लिया था, इसी कारण उन्होंने हमेशा विकृतियों व धर्म को अलग-अलग रखने का तथा सत्य को समझाने का प्रयास किया। विवेकानंदजी कहते हैं, “तुम्हारे सामने एक गहरा गड्ढा है। कितने ही उसमें गिरकर मर जाते हैं। वर्तमान हिंदू धर्म न तो वेद में है, न पुराणों में है, न भक्ति में या मुक्ति में है। धर्म तो घुस गया है रसोई की हाँड़ी में। इस समय तो हिंदू धर्म न है ज्ञानमार्ग, न ही बुद्धिवाद, बल्कि यह है केवल ‘अस्पृश्यतावाद‘ में। मुझे छूना नहीं, मुझे छूना नहीं इसका सारा स्वरूप इसमें ही समा जाता है। ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु‘-सभी प्राणियों को अपनी आत्मा जैसा ही मानो। यह उपदेश क्या पुस्तक में बंद कर के रखने के लिए है? जो दूसरे के श्वास से भी अस्पृश्य हो जाते हैं, उन लोगों को पवित्र किस प्रकार से बनाना है? अस्पृश्यता एक प्रकार का मानसिक रोग है। सर्व प्रकार का प्रेम अर्थात् विकास। सर्व प्रकार का स्वार्थ अर्थात् संकुचितता, इसलिए प्रेम ही एक शाश्वत जीवन का नियम है।”
भगवान् बुद्ध की करुणा का पूजन करनेवाले विवेकानंदजी बुद्ध का संदर्भ देते हुए कहते हैं-“बुद्धावतार में ईश्वर कहते हैं कि आधिभौतिक अथवा पृथ्वी के अन्य प्राणियों से होते हुए दुःख का मूल कारण जातियों की रचना में है। अन्य प्रकार से कहें तो जन्मलब्ध, गुणलब्ध या संपत्तिलब्ध प्रत्येक वर्गीय भेद इस दुःख का मूल है। आत्मा में लिंग, वर्ग, आश्रम या अन्य कक्षा का भेद नहीं है। जैसे कीचड़ कीचड़ से धोकर साफ नहीं हो सकता है, उसी प्रकार भिन्नता के विचारों से आत्मैक्य प्राप्त नहीं हो सकता है।”
स्वामीजी का विशिष्ट दृष्टिकोण
एक बार स्वामी विवेकानंद ने अद्वैत की चर्चा करते समय शिष्यों से कहा, “मैं इन सबका हूँ। हम सनातनी हिंदू हैं। छूना नहीं, छूना नहीं, छूना नहीं‘ जैसी मर्यादा के साथ हमारा कुछ भी लेना-देना नहीं है। हिंदू धर्म में तो यह है ही नहीं। हमारे किसी भी धर्मग्रंथ में अस्पृश्यता नहीं है। यह एक धर्म-विरोधी कार्य है। समस्त प्रजाजनों की कार्य-साधकता में यह शुरू से ही हस्तक्षेप करता रहा है।”
विवेकानंदजी धर्म के आधार पर, तर्क के आधार पर, भक्ति के आधार पर समाज को झिंझोड़ने का एक भी अवसर नहीं छोड़ते थे। समाज में घर कर गई रूढ़ियाँ और जड़ता का भी वे तर्क से खंडन करते थे। विवेकानंदजी कहते हैं-“पीढ़ियों से चले आ रहे नियमों और रीति-रिवाजों का कड़ाई से पालन करने पर ही यदि सद्गुण समा जाता हो तो उत्तर दीजिए कि वृक्ष से अधिक गुणवान कौन है ? पत्थर के टुकड़े को कभी कुदरती कानून का उल्लंघन करते देखा है क्या? पशुओं को कभी कोई पाप करते किसी ने देखा है?”
समाज में दबे हुए, कुचले हुए वर्ग की ओर देखने का उनका एक विशेष दृष्टिकोण था। किसी के लिए भी उपकार की भूमिका को वे कभी भी स्वीकार नहीं करते थे। वे एकत्व के मार्ग को ही उचित मानते थे। तथाकथित शूद्र के प्रति उनकी भूमिका की ऊँचाई कितनी अधिक थी, यह उनके ही कथन से स्पष्ट होता है
“ये लोग मुझे शूद्र कहें तो भी मुझे बुरा नहीं लगेगा। यह तो मेरे पिछले पूर्वजों द्वारा गरीबों के ऊपर किए हुए जुल्मों, अत्याचारों का थोड़े अंशों में प्रायश्चित्त ही होगा। यदि मैं शूद्र होता तो उलटा मैं तो बहुत ही प्रसन्न होता। मैं एक ऐसे मनुष्य का शिष्य हूँ, जो ब्राह्मणों में श्रेष्ठ ब्राह्मण होने के उपरांत भी एक शूद्र के घर में सफाई का काम करने को तैयार हो गए थे। शूद्र ऐसा करने ही नहीं देते थे। वे उस ब्राह्मण संन्यासी को अपना घर साफ करने की आज्ञा कैसे दें? इस कारण यह आदमी आधी रात को उठकर उस शूद्र के घर चुपचाप जाकर उसका शौचालय साफ करके आ गया और अपने लंबे बालों से उस स्थान को पोंछ भी आया। मैं इस पुरुष के चरणों में मस्तक झुकाता हूँ। इसी प्रकार से सेवा करके हिंदुओं को सामान्य जनता को ऊँचा उठाना चाहिए। हमारे सुधारकों में एक भी ऐसा है जो शूद्र की सेवा करने को तैयार हो, तो मैं उसके चरणों में बैठकर उससे सीखूगा। असामान्य आचरण की कीमत सिद्धांतों से कई गुना ज्यादा होती है।”
आज समाज के दबे-कुचले वर्ग के उत्थान के लिए होनेवाले प्रयास अधिकतर राजकीय उठा-पटक के खेल बन गए हैं। दूसरी ओर जातिवाद का अभियान राजनीतिक और आर्थिक शोषण का हथियार बन गया है। उच्च वर्ग के जातिवादी अभियान के सामने विवेकानंदजी ने १०० वर्ष पहले समाज के सर्वांगीण विकास की चिंता करते हुए कहा था, “ओ ब्राह्मणो! वंश-परंपरा की दलील वाली भूमिका के ऊपर से यदि तुम कहना चाहते हो कि ब्राह्मणों में विद्या के प्रति झुकाव दलितों की अपेक्षा अधिक मात्रा में है तो फिर ब्राह्मणों की शिक्षा के लिए अधिक पैसों का व्यय बंद कर दो। सारा पैसा (धन) दलितों की शिक्षा के लिए खर्च, कमजोरों को सहायता दो। वास्तव में सहायता की आवश्यकता तो वहाँ है। ब्राह्मण, जो जन्म से होशियार हो, तो वह बिना मदद के भी अध्ययन कर सकेगा। दूसरे, जो जन्म से ही होशियार नहीं हैं, उनकी शिक्षा के लिए या शिक्षकों को जो भी चाहिए, वह सबकुछ दो। मेरी समझ के अनुसार तो यही बात न्याय और तर्कसंगत कही जाएगी। भारत के इन पददलित समाज को वास्तव में किस चीज की जरूरत है, यह समझने की आवश्यकता है। अरे, प्रत्येक स्त्री, पुरुष और बालक को किसी भी जाति या वंश की सबलता या निर्बलता की गणना न कर उन्हें सुनाने व सिखाने की सबल और निर्बल के पीछे, ऊँच और नीच के पीछे प्रत्येक के पीछे सब किसी को । और महान बनने की अनंत संभावना एवं अनंत शक्ति का विश्वास दिलानेवाली जमान है। उठो, जागो, इस निर्बलता को झटककर फेक दो। वास्तव में कोई भी दुर्बल नहीं है। आत्मा सनातन, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ है।”
राज-व्यवस्था का समरस दृष्टिकोण
विवेकानंदजी ने धर्मतत्त्व के आधार पर प्रेम, संवेदना और करुणा के मार्ग द्वारा ही समाज की विकृतियों के निराकरण का मार्ग बताया है। इतना ही नहीं, उन्होंने समाज के सर्वांगीण विकास के लिए समरस दृष्टिकोण वाली राज-व्यवस्था के बारे में भी सूचना दी थी। आजादी के पचास वर्ष की राजनीति की ओर देखें तो ध्यान में आता है कि पहले समाज के अग्रणियों में से खड़े हुए शासक अलग-अलग खेमे (वर्ग) में खड़े होकर जातियों का शोषण कर राजसत्ता भोगते रहे। अब एक छोटा सा अंतर आ रहा है कि जिस जाति में से खड़ा हुआ नया अग्रवर्ग अपने व्यक्तिगत राजनीतिक हितों के लिए अपनी-अपनी जातियों को जातिवाद के जड़-बंधनों में डालकर स्वयं ही उनका शोषण करने के लिए आगे बढ़ रहा है। जातिवाद निर्मूल नहीं होता है। मात्र शोषक बदल रहे हैं। सही अर्थों में यह परिस्थिति का निराकरण नहीं है। ऐसा विवेकानंद ने कहा था, सूचित किया था।
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य-इन तीनों वर्गों में राजनीतिक कार्यों का क्रियान्वयन हो चुका है। अब शूद्र वर्ग का जमाना आया है। उनकी राजनीति का कार्यक्रम बनेगा ही। उसका कोई विरोध नहीं कर सकेगा। विवेकानंदजी यही कहकर रुकते नहीं हैं। वे परिस्थिति के निराकरण की सही दिशा और राज्य-चरित्र के संबंध में कहते हैं-“यदि एक ऐसे राज्य की रचना की जा सके, जिसमें ब्राह्मण द्वारा समय का ज्ञान, क्षत्रिय द्वारा समय की संस्कारिता, वैश्य द्वारा समय को व्यावहारिक उपयोग में लाने की भावना और शूद्रों को समानता का आदर्श इन सबका यदि एक सामंजस्य किया जा सके और प्रत्येक समय के दूषण को एक साथ दूर किया जा सके तो ऐसा राज्य एक आदर्श राज्य बनेगा।”
गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ हमारा देश मानसिक रूप से भी गुलाम बन गया था, मानो आत्मगौरव की भावना ही समाप्त हो गई थी। बड़े-बड़े समाज-सुधारक, विद्वान् समाज की विकृतियों की चिंता करते हैं, तब हमारे मूल चिंतन में ही कहीं कोई दोष है। ऐसा स्वीकार कर चलते हैं-हमारी व्यवस्थाओं, हमारी परंपराओं, हमारी संस्कृति, हमारा धर्म-यह सब का सब ही मानो रोग का मूल है। पश्चिम का सबकुछ श्रेष्ठ है, ऐसे भ्रम में हम लोग जीते हैं। हम जब तक परंपरागत संस्कृति में से बाहर नहीं आएँगे, उससे दूर नहीं होंगे, तब तक भारत का कभी भी उद्धार नहीं होगा-ऐसी निराशा का विचार उनका जीवन-मंत्र बन गया था। गुलामी की ऐसी विकृत मानसिकता रखने वाले तत्त्व आज भी कहाँ कम हैं ? समाज में व्याप्त ऐसी मानसिक कमजोरी के संबंध में विवेकानंदजी कहते हैं-“मेरे देश के बंधुओं! मेरे मित्रों! मेरे बच्चों! हमारी राष्ट्रीय नाव जीवन के असीम समुद्र-जल में से असंख्य आत्माओं को पार उतार रही है। प्रकाशमय अनेक सदियों से इस संसार-सागर के जल में तैरकर लाखों-करोड़ों जीवों को उस पार उतारकर वह धन्यता की पात्र बनी है। आज शायद तुम्हारे ही दोष के कारण इस नाव को कुछ नुकसान पहुंचा है। इसमें एक नन्हा छेद हो गया है। क्या इस कारण से इस नाव को दोषी माना जाएगा? जिस नौका ने संसार में किसी भी अन्य नाव की तुलना में बहुत अधिक सेवा की हो, ऐसी इस राष्ट्रीय नाव को तुम दोष दो तो क्या यह तुम्हें शोभा देगा? हमारी राष्ट्रीय नाव में, हमारे समाज में जो छेद हो गए हैं, तब भी हम उसी में बैठे हुए हैं। हम खड़े होकर उस छेद को बंद कर दें। अपनी स्वेच्छा से अपना रक्त सींचकर यह काम करें और इससे भी पार नहीं हो सके तो मर जाएँगे; परंतु एक भी शब्द इस समाज के विरुद्ध नहीं बोलेंगे। भाइयो! हमारी नाव डूब रही है। हम सब डूब रहे हैं। मैं तो आपके बीच बैठने के लिए आया हूँ। यदि हमें डूबना ही पड़ेगा तो सब एक साथ ही डूबेंगे, परंतु शाप या गाली हमारे मुख से नहीं निकलेगी।”
कुचले हुए वर्ग के विकास की चिंता
विवेकानंदजी मात्र आध्यात्मिक उन्नति की बात करनेवाले एकमार्गी संन्यासी नहीं थे। विवेकानंदजी की प्रत्येक बात दबे-कुचले, दलितों, पीड़ितों, पिछड़े वर्ग के विकास की चिंता व्यक्त किए बिना पूरी नहीं होती थी। उनके जीवन की चिंतनधारा की यही विशेषता थी कि उन्होंने दरिद्रनारायण की एक नई कल्पना समाज के सामने रखी थी। आज जैसे दलितों-पीड़ितों के नाम पर वचन और बातें करनेवाले वे मत के भूखे राजनेता नहीं थे। वे भव्य भारत के भविष्य के लिए श्रेष्ठ मार्ग का दर्शन करानेवाले मनीषी थे। वे सही अर्थों में अंत्योदय के पुरस्कर्ता थे। समाज के छोटे-से-छोटे मानव की चिंता करते हुए विवेकानंदजी ने कहा था, “हमारी प्रतिज्ञा इस प्रकार से है-निम्नसे-निम्न मनुष्य के लिए जगत् का उच्च-से-उच्च हित करना और ऐसा करते-करते मुक्ति मिले या नरक, उसका स्वागत करना।” विवेकानंद के लिए मुक्ति या मोक्ष की अपेक्षा दलितों, पीड़ितों का उद्धार अत्यंत महत्त्वपूर्ण था।
वेदांत को माननेवाले विवेकानंद सामाजिक विकृतियों से बहुत व्यथित थे, समाज को विकृतियों से मुक्त करने को दृढ़ संकल्पित थे। संपूर्ण मानव जाति के कल्याण के लिए समरस समाज हो-ऐसा वे दृढ़ रूप से मानते थे।
विवेकानंदजी ने श्रेष्ठ लक्ष्य की पूर्ति के लिए ‘एकत्व‘ की अनुभूति कराने का मार्ग पसंद किया था। उनका संघर्ष समाज के छोटे-से-छोटे मानव तक संवेदनाओं का सेतु बाँधने का था। उनके मतानुसार जब तक संपूर्ण समाज के साथ सही अर्थों में हृदय का मिलाप न हो, तब तक सभी प्रयत्न बेकार थे। इन सब समस्याओं के निराकरण हेतु समरसता समाज का निर्माण करने का श्रेष्ठतम मार्ग अर्थात् अपनेपन की भावना, समाज के लिए संवेदना, समाज के प्रत्येक व्यक्ति के साथ एकत्व की अनुभूति । सामाजिक समरसता के श्रेष्ठ मार्ग को पाने के लिए वे भारत की अंतरऊर्जा को जाग्रत् करते हुए कहते थे, “तू भूलना नहीं कि भारत का निचला वर्ग अज्ञानी, भारतवासी, भारत का चमार, भारत का ‘झाड़ लगानेवाला दलित‘-ये सभी रक्त संबंध से जुड़े सगे-संबंधी हैं, तुम्हारे भाई हैं। हे वीर! तू बहादुर बन, साहसी बन और गर्व से कह कि तू भारतवासी है और गर्वपूर्वक गर्जना करके कह कि ‘मैं भारतवासी हूँ।‘ प्रत्येक भारतवासी मेरा भाई है। तू पुकारकर कह कि अज्ञानी भारतवासी, गरीब भारतवासी, कंगाल भारतवासी, ब्राह्मण भारतवासी, अंत्यज भारतवासी-प्रत्येक भारतवासी मेरा भाई है। तेरे पास पहनने के लिए चाहे एक लंगोटी ही हो तो भी तू गर्वपूर्वक उच्च स्वर में घोषणा कर कि भारतवासी मेरा भाई हैं, भारतवासी ही मेरा जीवन है, भारत के देवी-देवता मेरे ईश्वर हैं।”
विकृतियों से मुक्त ऐसे समरस समाज का मार्ग ही राष्ट्र-कल्याण का मार्ग हो सकता है। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए कोई आक्रोश नहीं, बस आत्मीयता चाहिए। व्यक्ति के अधिकार की अपेक्षा समाज के प्रति कर्तव्य का विचार करना पड़ेगा। प्रेम और सद्भावना के आधार पर समरस समाज की रचना संभव है। आज जब स्वार्थी हित रखनेवाले तत्त्व समाज को समरभूमि बना रहे हैं, तब आओ संकल्प करें
छोड़ समर
समरसता की राह चलें।
समर के सैनिक नहीं
समरसता के सेवक बनें॥